मंगलवार, 31 जुलाई 2018

सामाजिक चेतना के चितेरे मुंशी प्रेमचंद

सामाजिक चेतना के चितेरे मुंशी प्रेमचंद
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असली नाम : धनपत राय
जन्म : 31 जुलाई 1880
जन्म- स्थल : वाराणसी के पास स्थित लमही गाँव
मृत्यु : 8 अक्टूबर 1936
लेखन की भाषा : उर्दू व हिंदी
रचनाओं का केंद्र: आम आदमी की संघर्षपूर्ण जिंदगी
रचनाओं का मुख्य कथ्य: ग्रामीण जीवन की विसंगतियां, विषमता, सामाजिक विद्रूपता, उत्पीड़न
शुरूआती लेखन
धनपत राय ने शुरुआत में उर्दू में 'नवाब राय' के नाम से लेखन किया। उनका पहला लघु उपन्यास 'असरार ए म आबिद' (हिंदी में – देवस्थान रहस्य) था, जिसमें उन्होंने मंदिरों में पुजारियों द्वारा धर्म की आड़ में की जा रही लूट-पाट और महिलाओं के साथ किये जा रहे शारीरिक शोषण को उज़ागर किया। उनका पहला कहानी संग्रह 'सोज़े-वतन' (अर्थात ' देश का दर्द' ) शीर्षक से 1908 में प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी हुकूमत ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। 'सोजे-वतन' की सभी प्रतियाँ जब्त कर जला दी गईं।

इस घटना के बाद 'ज़माना' पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम ने धनपत राय को अपनी रचनाएं प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दी। इस सलाह को शिरोधार्य करते हुए धनपत राय ने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी हिंदी में रचित पहली कहानी 'बड़े घर की बेटी' जमाना पत्रिका के दिसंबर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई।
रचना संसार
हिन्दी साहित्य में युग प्रवर्तक रचनाकार, अद्भुत रचनाधर्मिता के स्वामी, मानव मन के पारखी, शरतचंद्र चटोपाध्याय द्वारा 'उपन्यास सम्राट' की पदवी से सम्मानित, हिंदी कथा- साहित्य के पितामह, सशक्त शब्द- शिल्पी, कलम के कमाल के सिपाही मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में प्रगतिवाद, यथार्थवाद और गांधीवाद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। राष्ट्रीय चेतना के मामले में प्रेमचंद पर गांधी जी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है तो समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए वे साम्यवाद की पटरी पर चलना पसंद करते हैं।
मुंशी प्रेमचन्द ने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया, वह छायावाद का दौर था। निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी जैसे रचनाकार उस समय शिखर पर थे। उनसे हटकर प्रेमचन्द ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारते हुए छुआछूत, साम्प्रदायिकता, कृषक वर्ग की दुर्दशा, भ्र्ष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, ग़रीबी, उपनिवेशवाद, नारी- मुक्ति, दलित उत्पीड़न आदि ज्वलंत मुद्दों पर लिखना शरू किया। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं, खासकर कहानियों व उपन्यासों में भारत के वंचित, शोषित, दलित, पिछड़े और विशेष रूप से देश के गरीब किसानों के जीवन- संघर्ष और त्रासदियों को उज़ागर किया है। उन्होंने मूक जनता का पक्ष लिया है जो दलित हैं, शोषित हैं, और निरुपाय हैं।
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों के पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं एवं रूढ़ियों से जूझते हैं और अपनी नियति के साथ-साथ भविष्य की इबारत भी गढ़ते हैं। पग- पग पर उन्हें यातना, दरिद्रता व नाउम्मीदी भले ही मिलती हो पर अंतत: वे हार नहीं मानते हैं और संघर्षों की जिजीविषा के बीच भविष्य की नींव रखते हैं।
प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों के पात्रों के बारे में एक बार कहा था कि- ‘‘हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए दिखेंगे और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है।’’
प्रेमचंद के दलित और पिछड़े चरित्र गैर दलित और अगड़ी चरित्रों की तुलना में अधिक मानवीय, कारुणिक और तार्किक हैं, प्रतिरोधी और मुखर भी।
जीवन- दर्शन
मानवीय मूल्यों के वाहक के रूप में प्रेमचंद भारतीय समाज के सबसे सफल चितेरे हैं। मानवता का व्यापक संदेश एवं युग का सजीव चित्रण उनके कथा-साहित्य की ख़ासियत है। उन्हें अपने समय के भारतीय समाज की वर्णीय एवं वर्गीय समाज की गहरी समझ थी। परम्परागत वर्णाश्रम व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने लिखा कि- भारतीय राष्ट्र का आदर्श मानव शरीर है जिसके मुख, हाथ, पेट और पाँव- ये चार अंग हैं। इनमें से किसी भी अंग के अभाव या विच्छेदन से देह का अस्तित्व निर्जीव हो जाएगा। प्रेमचंद प्रश्न उठाते हैं कि यदि वर्णाश्रम व्यवस्था के पाँव माने जाने वाले शूद्रों का सामाजिक व्यवस्था से विच्छेदन कर दिया जाय तो इसकी क्या गति होगी? इसी आधार पर वे समाज में किसी भी प्रकार के छुआछूत का सख्त विरोध करते हैं। अपने एक लेख में वे लिखते हैं- ‘‘क्या अब भी हम अपने बड़प्पन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते फिरेंगे। यह ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद हिन्दू जीवन के रोम-रोम में व्याप्त हो गया है। हम यह किसी तरह नहीं भूल सकते कि हम शर्मा हैं या वर्मा, सिन्हा हैं या चौधरी, दूबे हैं या तिवारी, चौबे हैं या पाण्डे, दीक्षित हैं या उपाध्याय। हम आदमी पीछे हैं, चौबे या तिवारी पहले और यह प्रथा कुछ इतनी भ्रष्ट हो गई है कि आज जो निरक्षर भट्टाचार्य है, वह भी अपने को चतुर्वेदी या त्रिवेदी लिखने में जरा भी संकोच नहीं करता।’’
प्रेमचंद वर्ण व्यवस्था, ऊंच- नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदने को राष्ट्रीयता की पहली शर्त मानते थे। शास्त्रों की आड़ में दलितों के मंदिर प्रवेश को पाप ठहराने वालों को जवाब देते हुए प्रेमचन्द ने ऐसे लोगों की विद्या-बुद्धि व विवेक पर सवाल उठाया और कहा कि- ‘‘विद्या अगर व्यक्ति को उदार बनाती है, सत्य व न्याय के ज्ञान को जगाती है और इंसानियत पैदा करती है तो वह विद्या है और यदि वह स्वार्थपरता व अभिमान को बढ़ावा देती है, तो वह अविद्या से भी बदतर है।’’
ब्रिटिश शासन के दौरान वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थकों द्वारा हिन्दू मंदिरों की दलितों से रक्षा करने के सन्दर्भ में वायसराय को सम्बोधित ज्ञापन की तीखी आलोचना करते हुए प्रेमचन्द ने वर्णाश्रम व्यवस्था समर्थकों की आलोचना करते हुए लिखा कि- ‘‘राष्ट्र की वर्तमान अधोगति हेतु ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं। दक्षिणा में अछूतों द्वारा दिए गये पैसे लेने में इन्हें कोई पाप नहीं दिखता पर किसी अछूत के मंदिर में प्रवेश मात्र से ही इनके देवता अपवित्र हो जाते हैं। यदि इनके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं, तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता तो वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाये।’’ प्रेमचन्द धर्म का उद्देश्य मानव मात्र की समता मानते थे एवं किसी भी प्रकार के विभेद को राष्ट्र के लिये अहितकर मानते थे।
प्रेमचंद नारी को और उसकी अस्मिता से जुड़े सामाजिक सवालों को जीवन और परिवार के साथ जोड़कर देखने और उसी की परिधि में उन सवालों के जवाब तलाशने जाने के महत्व को जानते थे। उनकी कहानी 'बड़े घर की बेटी' में पारिवारिक द्वंद का जिस प्रकार समाधान होता है, उसे ध्यान में रखा जा सकता है। उनके नारी चरित्र पुरुष चरित्र की अपेक्षा अधिक प्रखर, प्रभावी, प्रगतिशील, केंद्रीय और मुखर हैं। स्त्रियों के साथ समाज में हो रहे दोयम दर्ज़े के बर्ताव का प्रेमचन्द ने कड़ा विरोध किया और अपनी रचनाओं में उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्ज़ा देते हुये, विकास की धुरी बनाया।
मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदान' मात्र किसान की संघर्ष गाथा नहीं है वरन् इसमें स्त्री की बहुरूपात्मक स्थिति को दर्शाते हुए उसकी संघर्ष गाथा को भी चित्रित किया गया है। ‘सेवा सदन’ में एक वेश्या के बहाने प्रेमचन्द्र ने धर्म के नाम पर चलने वाले अनाथालयों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ किया है। ‘कर्मभूमि’ में मुन्नी द्वारा बलात्कारी सिपाही की हत्या स्त्री-मुक्ति के संघर्ष का अनूठा साक्ष्य है। इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं:
"पुरुषों में थोड़ी पशुता भी होती है, जिसे वह इरादा करने पर भी हटा नहीं सकता। वह पशुता उसे पुरुष बनाती है । विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है... जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया --इन्हीं आधारों पर सृष्टि थमी हुई है, और ये स्त्रियों के गुण हैं।"
इसी प्रकार प्रेमचन्द ने कृषक समुदाय को भारत की प्राणवायु बताया। कर्ज में डूबे किसान, उन पर ढाये जाते जुल्म, उनकी बद से बद्तर होती गरीबी, व्यवस्थागत विक्षोभ और किसानों की समस्याओं को किसी भी साहित्यकार ने उस रूप में नहीं उठाया, जिस प्रकार प्रेमचन्द ने उठाया। उनका पूरा साहित्य ही दलित, स्त्री और किसान की लड़ाई का साहित्य है, जिसमें समता, न्याय और सामाजिक परिवर्तन की घोषणा है।
मूर्धन्य आलोचक हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं,
"अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता. . . जो संस्कृतियों और संपदाओं से लद नहीं गए हैं, अशिक्षित निर्धन हैं...वो उन लोगों से अधिक आत्मबल रखते हैं और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं, जो शिक्षित हैं, चतुर हैं, जो दुनियादार हैं जो शहरी हैं। यही प्रेमचंद का जीवन-दर्शन है। "
किसानी जीवन की त्रासदी 
'गोदान' देश के किसानी जीवन और उसके संघर्ष का सबसे मार्मिक और संवेदनशील महाआख्यान है। प्रेमचंद ने इसमें भारतीय किसान की पतनोन्मुखी स्थिति के लिए शोषकों के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और दुराग्रहों को जिम्मेदार माना है। 'गोदान' में प्रेमचंद की साहित्य संबंधी विचारधारा 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' से 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' तक की पूर्णता प्राप्त करती है। एक सामान्य किसान को पूरे उपन्यास का नायक बनाना भारतीय उपन्यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था।
प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न को न केवल चित्रित किया है, बल्कि इनके विरोध की चेतना को भी पकड़ा है। किसानों के शोषकों की पहचान सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों के रूप में की गयी है।
प्रेमचंद ने अनुभव किया कि सामाजिक समस्याओं का मूल कारण दूषित आर्थिक व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत पूंजीवाद और औद्योगिकरण की शक्ति धन के असमान वितरण को बढ़ावा देकर विषमता उत्पन्न करती है। 'महाजनी सभ्यता' शीर्षक से लिखे अपने निबंध में वे लिखते हैं: "जिनके पास पैसा है, वह देवता तुल्य है; उसका अंतःकरण कितना भी काला क्यों ना हो। साहित्य, संगीत, कला सभी धन की देहरी पर माथा टेकते हैं।"
प्रेमचंद की दृष्टि में साहित्य का उद्देश्य
"Literature is at base a criticism of life." ( Matthew Arnold ) साहित्य बुनियादी तौर पर 'जीवन की आलोचना' है; प्रेमचंद भी साहित्य की इस परिभाषा को मान्यता देते थे। हम जीवन में जो कुछ देखते हैं, या जो कुछ हम पर गुजरती है, वही अनुभव और चोटें कल्पना में पहुंचकर साहित्य सृजन की प्रेरणा करती हैं। कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और ऊंचे दर्जे की होती है। साहित्य का उद्देश्य मानव की अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाना है।
प्रेमचंद मानते थे कि 'अब साहित्य केवल मन-बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। साहित्य केवल नायक- नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता, किंतु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हें हल करता है। सन 1936 में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन में 'साहित्य का उद्देश्य' पर प्रेमचंद ने जो अध्यक्षीय वक्तव्य दिया, उसका सार इन पंक्तियों में समाहित है :
" जब तक साहित्य का काम केवल मन बहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गा- गा कर सुलाना, केवल आंसू बहा कर जी हल्का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता नहीं थी... मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तुएं नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-- जो हमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"
प्रेमचंद की चर्चित उक्तियाँ
*चापलूसी का जहरीला प्याला आपको तब तक नहीं नुकसान पहुंचा सकता जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझ कर पी ना जाए।
*डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है।
*विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला।
*जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए वह खुदा( ईश्वर ) से उतना ही दूर है।
* खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन नाम है, आगे बढ़ते रहने की लगन का।
* दौलतमंद आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।
* आत्मसम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है
* लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?
*न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। इन्हें वह जैसे चाहती है, वैसे नचाती है।
मूल्यांकन
प्रेमचंद ने तक़रीबन 300 कहानियाँ,14 उपन्यास, कई निबंध और पत्र भी लिखे हैं। उनकी लगभग सभी कहानियों का संग्रह उनके मरणोपरांत 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 खण्डों में प्रकाशित किया गया है। ग़ुरबत या गरीबी की विडंबना, संघर्ष और दुख को प्रेमचंद ने अपने ख़ास अंदाज़ में बयान किया है। पाठक केवल कथ्य contents ( क्या कहा गया ) से ही द्रवित नहीं होता, शिल्प craft ( कैसे कहा गया ) से भी वह प्रभावित होता है। सहज शिल्प के माध्यम से सजीव कथा को कहना ही कहानी है। प्रेमचंद इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।
हिन्‍दी कथा- साहित्‍य को सर्वप्रथम प्रेमचंद ने ही प्रवाहयुक्‍त मुहावरेदार, सुगम, सुबोध, साधारण बोलचाल की बहुलता लिये पात्रानुकूल भाषा प्रदान की। कहानी में प्रयुक्त भाषा पात्रों की उलझी मन:स्थिति तथा बाहरी संघर्ष के यथार्थ का सशक्‍त प्रतिबिम्‍ब प्रस्‍तुत‍ करती है। उन्होंने अपने कथा- साहित्य में गाँवों और कस्बों में आम आदमी द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को नई पहचान प्रदान की। जन- भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य 'शुद्धता' से नहीं, 'निखालिस होने' से नहीं अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है।
प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया, जहाँ पहले साहित्य मायावी भूल-भुलैयों में पड़ा स्वप्नलोक और विलासिता की सैर कर रहा था, ऐसे में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य में जनमानस की पीड़ा को उभारा। उनके लेखन की यह शक्ति है कि घटना सत्य से ज्यादा जीवन के तथ्यपूर्ण सत्य की स्थापना करती है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोo विपिन चन्द्र ने एक बार टिप्पणी की थी-‘‘यदि कभी बीसवीं शताब्दी में आजादी के पूर्व किसानों की हालत के बारे में इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार का प्राथमिक स्त्रोत होगा प्रेमचंद का ‘गोदान’, क्योंकि इतिहास कभी भी अपने समय के साहित्य को ओझल नहीं करता।’’
प्रेमचंद के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं :
"प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को 'मनोरंजन' के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया।"
प्रेमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया है, किंतु उनकी दृष्टि समाज से उपेक्षित वर्ग की ओर अधिक रहा है। प्रेमचंद जी ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अपनाया है। उनके पात्र प्रायः वर्ग के प्रतिनिधि रूप में सामने आते हैं।
प्रासंगिकता
प्रेमचंद पर शोधकर्ता श्री कृष्ण यादव अपने आलेख 'साहित्य से इतर प्रेमचंद की प्रासंगिकता' में लिखते हैं कि 'साहित्य से इतर सामाजिक विमर्शों पर प्रेमचन्द के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चितत: इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं।
देश आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था, चाहे वह जातिवाद या साम्प्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और सामाजिक भेद-भाव हो। इन बुराइयों के आज भी मौजूद होने का एक कारण यह है कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समानान्तर हर तरह के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा नेतृत्वकर्ताओं को केन्द्र-बिन्दु बनाकर लड़ी गयी जिससे मूल भावनाओं के विपरीत आन्दोलन गुटों में तब्दील हो गये एवं व्यापक व सक्रिय सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा कुछ लोगों की सत्तालोलुपता की भेंट चढ़ गयी।'
अंतर्राष्ट्रीय आवारा पूंजीवाद के गर्भ से निकले बाजारवाद के संपोषण का ही नतीजा है कि देश वर्तमान में सत्ता के संरक्षण में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उपनिवेश में बदलता जा रहा है। आंतरिक उपनिवेश की नई प्रक्रिया तेजी से जारी है। लगभग 10- 15 करोड़ भारतीय शेष भारतीयों का अपना उपनिवेश बनाने पर आमादा हैं। इस विकट स्थिति को समझने और उससे निपटने की जुगत जुटाने में कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद की सोच प्रासंगिक बनी रहेगी।
वस्तुत: प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे, जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का। प्रेमचन्द ने राष्ट्रीयता को पारिभाषित करते हुए लिखा कि- ‘‘हम जिस राष्ट्रीयता की परिकल्पना कर रहे हैं, उसमें जन्मगत वर्ण व्यवस्था की गंध तक नहीं होगी।
उन्होंने यह अनुभव किया कि उनके समय की परिस्थितियों में समग्र भारत को एक सूत्र में पिरोने का आधार धर्म नहीं बल्कि आर्थिक समानता ही हो सकती है। प्रेमचंद का सपना हर तरह की विषमता, सामाजिक कुरीतियों और साम्प्रदायिक-वैमनस्य से परे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना था जिसमें समता सर्वोपरि हो। वे इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि भारतीय समाज में विद्यमान भेदभाव व पृथकता ही उपनिवेशवाद की जड़ रहा है।
भारतीय समाज-व्यवस्था की यथार्थ स्थिति का वर्णन करते हुए प्रेमचन्द ‘महाजनी सभ्यता’ शीर्षक लेख में लिखते हैं :
“मनुष्य-समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने-खपनेवालों का है और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने वश में किए हुए हैं। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।”
‘कर्मभूमि’ में भी एक स्थान पर प्रेमचन्द इस ओर लक्ष्य कर गये हैं। अमरकांत कहता है :
“एक अदमी दस रुपये में गुज़र करता है, दूसरे को दस-हज़ार क्यों चाहिए ? यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी जब-तक जनता की आँखें बन्द हैं। क्षमा कीजिएगा, एक आदमी पंखे की हवा खाए और ख़सख़ाने में बैठे ओैर दूसरा आदमी दोपहर की धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म, यह धाँधली है।”
प्रेमचंद के राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर उनके लेख आज भी प्रासंगिक कहे जा सकते हैं। 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' शीर्षक से एक लेख प्रेमचंद ने जनवरी 1934 में लिखा, जिसमें साम्प्रदायिक ताकतों के वैचारिक चरित्र को उज़ागर करते हुए वे लिखते हैं:
'साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।
हिन्दू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं।'
आजकल अतीत का जोरशोर से जो महिमामंडन किया जा रहा है। इस संदर्भ में कथाकार प्रेमचंद ने क्या लिखा है, यह भी पढ़ लें "बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था। पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी। पुस्तकों में वह जितनी ही ऊँची और पवित्र थी,व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट।"
प्रेमचंद ‘राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता’ शीर्षक निबंध में लिखते हैं, ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे ज़रा भी मानसिक कलेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है।'
प्रेमचंद हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के अगुआ साहित्यकार हैं। वे जितने हिंदी के हैं उतने ही उर्दू के भी। उन्होंने ‘ईदगाह’ और ‘रामलीला’ जैसी कहानियां लिखकर असली हिंदुस्तान की तस्वीर रखी है। जहां जात-पात और महजबी भेदभाव से ऊपर होकर इंसानियत को तरजीह दी गई है।
प्रेमचंद के लिए इंसानियत सबसे अहम है। प्रेमचंद हर धर्म के भीतर इसी की तलाश करते हैं। जहां उन्हें बुराई दिखती है वे उसका कड़ाई से बिना कोई मुरौव्वत के विरोध करते हैं ; जो उन्हें अच्छाई दिखती है उसकी जमकर सराहना भी करते हैं।
प्रेमचंद में समस्याओं के समन्वय की अद्भुत क्षमता थी। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, जहाँ धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण, जाति आदि की विचित्र विविधताएँ विद्यमान हैं, लोकनायक वही बन सकता है जो इन विविधताओं में समन्वय स्थापित कर सके। प्रेमचंद ने देश के दो प्रमुख सम्प्रदायों - हिन्दू और मुसलमान के बीच समन्वय स्थापित करने का आजीवन प्रयास किया। उन्होंने हिन्दी-उर्दू साहित्य और भाषा में भी समन्वय स्थापित करने की भरपूर चेष्टा की। गाँधी और मार्क्स में समन्वय किया, आदर्श और यथार्थ में समन्वय किया तथा समाज और साहित्य में भी समन्वय स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इसीलिए वह लाखों-करोड़ों पाठकों के चहेते बन सके। प्रेमचंद की महानता का रहस्य उनकी इसी समन्वित अन्तर्दृष्टि में निहित है।
----प्रोफेसर एच. आर. ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

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