इस धरती की हर मां कम्युनिस्ट होती है...!
त्रिभुवन
बहुत साल पहले की बात है। उन दिनों में स्कूली छात्र था और कम्युनिस्ट शब्द पहली बार कानों में पड़ा था। यह शब्द प्रयुक्त किया था एक सरदार साहेब ने, जिन्हें मैं नानाजी कहा करता था।
वे दिखने में साधु जैसे थे, लेकिन थे सरदार। घर में कारें-जीपें बहुत थीं, लेकिन मेरे बाबा से मिलने के लिए वे घोड़े पर आते थे। दोनों की दोस्ती की वजह घोड़े, उपनिषद चर्चा और सिख-इस्लाम या दार्शनिक विषय हुआ करते थे। वे उपनिषदों की बहुत सी कहानियां बड़े ही रोचक ढंग से सुनाया करते थे।
मैं अभी उनका नाम भूल गया हूं, लेकिन वे बानियावाला गांव से आया करते थे। उस गांव के सरदार मस्तानसिंह मुझे आज भी बहुत याद हैं। गांव का नाम बानियावाला था, लेकिन गांव पूरी तरह सिखों का था। उस गांव में मैंने कभी कोई बानिया नहीं देखा। बानिया यानी बनिया। यह गांव कई कारणों में मेरे दिलोदिमाग़ में है। वह सरदार साहब ही थी, जिन्होंने मुझे छठी कक्षा में "भोजप्रबंध" लाकर दिया था और कहा था कि मैं इसे कंठस्थ कर लूं। कपड़े की ज़िल्द और ख़ास गंध वाले पीले पन्ने वाली वह किताब आज भी हमारे घर की थाती है।
"भोजप्रबंध" संस्कृत साहित्य की एक उत्कृष्ट कृति है। यह लोककवि बल्लाल की अनुपम रचना है। इसमें राजा भाेज की राजसभा के बहुत से सुंदर और सम्मोहक कथानक हैं। यह कृति बताती है कि शासकों को क्यों साहित्य में पारंगत होना चाहिए। लेकिन एक विद्या व्यसनी किसान सिख को जब मैं इस तरह देखता था तो ऐसा लगता था कि किसी पुराने कालखंड से कोई ऋषि चला आया है।
इस ग्रंथ का वह श्लोक मुझे आज भी कंठस्थ है, जिसमें राजा भोज ने टटं टटंटं टटटं टटंटम् बोला और कालिदास ने समस्यापूर्ति यों की : राजाभिषेके मदविह्वलाया, हस्ताच्युतो हेमघटो युवत्या:; सोपानमार्गेषु करोति शब्दं टटं टटंटं टटटं टटंटम्!
ख़ैर, बातचीत चल रही थी, कम्युनिज्म की। मेरे बार-बार प्रश्नों पर वे समझाने लगे : जैसे ये आंगन है। ये वेहड़ा है। तुहाडा ते साडा खेत है। ए घोड़ेे ऐं। ए मज्झां ते गाइयां ऐं...ये सबके सांझे हैं। मेरे बात पल्ले नहीं पड़ी। मुझे ये लगता था कि पूरे गांव का सब कुछ साझा ही है, क्योंकि हमारे घर से दूध और मक्खन मेरे दोस्त आकर ले जाते हैं और मैं किसी भी घर से जाकर गन्ने, फल और सब्जियां ले आता हूं या दे आता हूं। हमारा खेत दूर था। इसलिए चार क्यारे लूसण और दो क्यारे बरसीम पड़ोस के किसी खेत में बो लेते थे। बाबा ने कई लोगों को साथ लेकर आंदाेलन चलाया और गांव में स्कूल खुल रहा था; लेकिन वह बना उस जगह जो पांच-छह गांवों के बीच समान दूरी पर थी।
लेकिन मुझे उनकी एक बात बहुत आसानी से समझ आ गई : सभी रिश्ते बहुत साफ़ सुथरे और इनसाफ़ की बुनियाद और न्याय की अाधारशिला पर टिके होते थे। (हां-हां, दोनों का मतलब एक ही होता है!) लेकिन वे ऐसे ही बोला करते थे। वे आैम प्रकाश चौटाला की तरह, लेकिन चौटाला से भी बहुत पहले से "यक़ीन, भरोसा और विश्वास" बोला करते थे। हर किसी से योग्यता और क़ाबिलियत के अनुसार काम और हर किसी को उसकी ज़रूरत और अावश्यकता के अनुसार पैसा। अब तुम चाहो तो मेहनत-मज़ूरी कर लो और चाहो तो हवाई जहाज उड़ाओ या फिर किताबें लिखो। कालिदास बनकर समस्या पूर्ति करो। मेरे ये बात बिलकुल पल्ले नहीं पड़ी। उनके शब्द आज भी वैसे के वैसे याद हैं।
आख़िर में उन्होंने समझाया : देखो, मान लो तुम चार भाई हो। सब काम करेंगे अपनी क़ाबिलियत और जुगत से, लेकिन जो खेत में होगा, वह सबको बराबर मिलेगा। इस तरह वे कई चीज़ें समझा रहे थे। यह सही है कि न तो वे कम्युनिस्ट थे और न ही मेरे बाबा। न ही मैं कभी कम्युनिस्ट बना और न ही सरदार साहब की संतानें। सबके भीतर पता नहीं कौन कौन आवाज़ें लगाता है। लेकिन कभी किसी सांप्रदायिक, मताग्रही, जातिवादी या राष्ट्रवादी को उन्होंने न पसंद किया और न कभी अपने आसपास फटकने दिया। कई संकीर्ण मुल्ला-मौलवियों, पंडितों-ज्योतिषियों, मिशनरियों, ग्रंथियों आदि से दो-दो हाथ करते ही देखा। हमारी रगों में भी वही लहू बहुत जीवंत होकर बह रहा है।
लेकिन कुछ समय बाद जब उन सरदार साहब की मां का देहांत हुआ तो मैं भी बाबा के साथ घोड़े पर बैठकर गया। उस दिन वे बोले : बेटा, आज तेरे उस दिन वाले प्रश्न का उत्तर मेरे पास बहुत ज़ोरदार है। हर मां होती है सच्ची कम्युनिस्ट! तुम मां को समझ लो तो कम्युनिज्म समझ आ जाएगा। देख, मैं नकम्मा (निकम्मा) कोई काम नहीं करता। सारा दिन वेहला (बेकार) घूमता रहा। किताबें पढ़ता। साधु बना। मेरे भाई खेत में खटते। लेकिन मां ने सदा सबको एक जैसी रोटी दी, मक्खन में लिबड़-लिबड़ के। सरों का साग दिया घ्यो से तर करके। मैंनूं भी वही दूध का बड़ा छन्ना और खेत में खटने वालों को भी वही सब। एक जैसा पैसा, एक जैसा प्यार।
वे बोले : हमारे घरों में जो जमाईं ऊंचे पदों पर थे उनको भी वही शगुन और सम्मान दिया। जैसा उनको वैसा ही सरीके-कबीले के कम पढ़े लिखे दामादों को। सबके साथ बराबर। एक भाई ने बड़ी पैळी (खेत) बना ली और एक के पास कम रही तो भी मां के लिए दोनों बराबर रहे। न प्यार में फर्क, न दूध के गलास में और दही के कटोरे में। मुझ नकम्मे को अगर मक्खन बिना रोटी चंगी नहीं लगती थी तो वह हमारे बड़े भाई के हिस्से का भी मक्खन हमें देती थी।
वे कह रहे थे : और वेखो तुम, तुम्हारी मां भी ऐसी ही होगी और तुम्हारे प्यो की मां भी वैसी ही हाेगी। मां की मां भी और दुनिया की हर मां। हर मां की नीति fairest of all principles होती है : from each according to his ability, to each according to his needs! एबिलिटी के अनुसार काम और ज़रूरत के अनुसार अवदान!
और कमाल वेखो : मां के इस फै़सले पर न कभी बाप की घुड़की चली और न कभी ताए की गालियां कुछ कर पाईं! बाप तो पूरी हिटलरशाही चलाता है। एक ही घर हिटलरशाही भी तब कुछ ठीक कर पाती है अगर मां का कम्युनिज्म साथ हो। मां भी अगर हिटलर हो जाए तो फिर आंगन का तो हिरोशिमा बनना तय ही है, वेहड़ा भी नागसाकी हो ही जाऊगा!
वे बोले : देख, घर से मां चली गई, कम्युनिज्म चला गया! बस हिटलरशाही रह गई। वह रुआबदार आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंज रही है आैर सिख वेशभूषा के कारण उनका ऋषितुल्य चेहरा मेरी आंखों के आगे जीवंत हो जाता है। मानो, वे कह रहे हों : कम्युनिज्म चला गया, मां चली गई! (कम्युनिज्म का अर्थ यहां सीपीआई-सीपीएम आदि के शासन से नहीं लगाया जाए। जैसे कि आरएसएस ब्रैंड विचारधारा या इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट या भोलेभाले लोगों को ठगने वाले ईसाइयों की गतिविधियों को हम धर्म नहीं कह सकते।)
त्रिभुवन
बहुत साल पहले की बात है। उन दिनों में स्कूली छात्र था और कम्युनिस्ट शब्द पहली बार कानों में पड़ा था। यह शब्द प्रयुक्त किया था एक सरदार साहेब ने, जिन्हें मैं नानाजी कहा करता था।
वे दिखने में साधु जैसे थे, लेकिन थे सरदार। घर में कारें-जीपें बहुत थीं, लेकिन मेरे बाबा से मिलने के लिए वे घोड़े पर आते थे। दोनों की दोस्ती की वजह घोड़े, उपनिषद चर्चा और सिख-इस्लाम या दार्शनिक विषय हुआ करते थे। वे उपनिषदों की बहुत सी कहानियां बड़े ही रोचक ढंग से सुनाया करते थे।
मैं अभी उनका नाम भूल गया हूं, लेकिन वे बानियावाला गांव से आया करते थे। उस गांव के सरदार मस्तानसिंह मुझे आज भी बहुत याद हैं। गांव का नाम बानियावाला था, लेकिन गांव पूरी तरह सिखों का था। उस गांव में मैंने कभी कोई बानिया नहीं देखा। बानिया यानी बनिया। यह गांव कई कारणों में मेरे दिलोदिमाग़ में है। वह सरदार साहब ही थी, जिन्होंने मुझे छठी कक्षा में "भोजप्रबंध" लाकर दिया था और कहा था कि मैं इसे कंठस्थ कर लूं। कपड़े की ज़िल्द और ख़ास गंध वाले पीले पन्ने वाली वह किताब आज भी हमारे घर की थाती है।
"भोजप्रबंध" संस्कृत साहित्य की एक उत्कृष्ट कृति है। यह लोककवि बल्लाल की अनुपम रचना है। इसमें राजा भाेज की राजसभा के बहुत से सुंदर और सम्मोहक कथानक हैं। यह कृति बताती है कि शासकों को क्यों साहित्य में पारंगत होना चाहिए। लेकिन एक विद्या व्यसनी किसान सिख को जब मैं इस तरह देखता था तो ऐसा लगता था कि किसी पुराने कालखंड से कोई ऋषि चला आया है।
इस ग्रंथ का वह श्लोक मुझे आज भी कंठस्थ है, जिसमें राजा भोज ने टटं टटंटं टटटं टटंटम् बोला और कालिदास ने समस्यापूर्ति यों की : राजाभिषेके मदविह्वलाया, हस्ताच्युतो हेमघटो युवत्या:; सोपानमार्गेषु करोति शब्दं टटं टटंटं टटटं टटंटम्!
ख़ैर, बातचीत चल रही थी, कम्युनिज्म की। मेरे बार-बार प्रश्नों पर वे समझाने लगे : जैसे ये आंगन है। ये वेहड़ा है। तुहाडा ते साडा खेत है। ए घोड़ेे ऐं। ए मज्झां ते गाइयां ऐं...ये सबके सांझे हैं। मेरे बात पल्ले नहीं पड़ी। मुझे ये लगता था कि पूरे गांव का सब कुछ साझा ही है, क्योंकि हमारे घर से दूध और मक्खन मेरे दोस्त आकर ले जाते हैं और मैं किसी भी घर से जाकर गन्ने, फल और सब्जियां ले आता हूं या दे आता हूं। हमारा खेत दूर था। इसलिए चार क्यारे लूसण और दो क्यारे बरसीम पड़ोस के किसी खेत में बो लेते थे। बाबा ने कई लोगों को साथ लेकर आंदाेलन चलाया और गांव में स्कूल खुल रहा था; लेकिन वह बना उस जगह जो पांच-छह गांवों के बीच समान दूरी पर थी।
लेकिन मुझे उनकी एक बात बहुत आसानी से समझ आ गई : सभी रिश्ते बहुत साफ़ सुथरे और इनसाफ़ की बुनियाद और न्याय की अाधारशिला पर टिके होते थे। (हां-हां, दोनों का मतलब एक ही होता है!) लेकिन वे ऐसे ही बोला करते थे। वे आैम प्रकाश चौटाला की तरह, लेकिन चौटाला से भी बहुत पहले से "यक़ीन, भरोसा और विश्वास" बोला करते थे। हर किसी से योग्यता और क़ाबिलियत के अनुसार काम और हर किसी को उसकी ज़रूरत और अावश्यकता के अनुसार पैसा। अब तुम चाहो तो मेहनत-मज़ूरी कर लो और चाहो तो हवाई जहाज उड़ाओ या फिर किताबें लिखो। कालिदास बनकर समस्या पूर्ति करो। मेरे ये बात बिलकुल पल्ले नहीं पड़ी। उनके शब्द आज भी वैसे के वैसे याद हैं।
आख़िर में उन्होंने समझाया : देखो, मान लो तुम चार भाई हो। सब काम करेंगे अपनी क़ाबिलियत और जुगत से, लेकिन जो खेत में होगा, वह सबको बराबर मिलेगा। इस तरह वे कई चीज़ें समझा रहे थे। यह सही है कि न तो वे कम्युनिस्ट थे और न ही मेरे बाबा। न ही मैं कभी कम्युनिस्ट बना और न ही सरदार साहब की संतानें। सबके भीतर पता नहीं कौन कौन आवाज़ें लगाता है। लेकिन कभी किसी सांप्रदायिक, मताग्रही, जातिवादी या राष्ट्रवादी को उन्होंने न पसंद किया और न कभी अपने आसपास फटकने दिया। कई संकीर्ण मुल्ला-मौलवियों, पंडितों-ज्योतिषियों, मिशनरियों, ग्रंथियों आदि से दो-दो हाथ करते ही देखा। हमारी रगों में भी वही लहू बहुत जीवंत होकर बह रहा है।
लेकिन कुछ समय बाद जब उन सरदार साहब की मां का देहांत हुआ तो मैं भी बाबा के साथ घोड़े पर बैठकर गया। उस दिन वे बोले : बेटा, आज तेरे उस दिन वाले प्रश्न का उत्तर मेरे पास बहुत ज़ोरदार है। हर मां होती है सच्ची कम्युनिस्ट! तुम मां को समझ लो तो कम्युनिज्म समझ आ जाएगा। देख, मैं नकम्मा (निकम्मा) कोई काम नहीं करता। सारा दिन वेहला (बेकार) घूमता रहा। किताबें पढ़ता। साधु बना। मेरे भाई खेत में खटते। लेकिन मां ने सदा सबको एक जैसी रोटी दी, मक्खन में लिबड़-लिबड़ के। सरों का साग दिया घ्यो से तर करके। मैंनूं भी वही दूध का बड़ा छन्ना और खेत में खटने वालों को भी वही सब। एक जैसा पैसा, एक जैसा प्यार।
वे बोले : हमारे घरों में जो जमाईं ऊंचे पदों पर थे उनको भी वही शगुन और सम्मान दिया। जैसा उनको वैसा ही सरीके-कबीले के कम पढ़े लिखे दामादों को। सबके साथ बराबर। एक भाई ने बड़ी पैळी (खेत) बना ली और एक के पास कम रही तो भी मां के लिए दोनों बराबर रहे। न प्यार में फर्क, न दूध के गलास में और दही के कटोरे में। मुझ नकम्मे को अगर मक्खन बिना रोटी चंगी नहीं लगती थी तो वह हमारे बड़े भाई के हिस्से का भी मक्खन हमें देती थी।
वे कह रहे थे : और वेखो तुम, तुम्हारी मां भी ऐसी ही होगी और तुम्हारे प्यो की मां भी वैसी ही हाेगी। मां की मां भी और दुनिया की हर मां। हर मां की नीति fairest of all principles होती है : from each according to his ability, to each according to his needs! एबिलिटी के अनुसार काम और ज़रूरत के अनुसार अवदान!
और कमाल वेखो : मां के इस फै़सले पर न कभी बाप की घुड़की चली और न कभी ताए की गालियां कुछ कर पाईं! बाप तो पूरी हिटलरशाही चलाता है। एक ही घर हिटलरशाही भी तब कुछ ठीक कर पाती है अगर मां का कम्युनिज्म साथ हो। मां भी अगर हिटलर हो जाए तो फिर आंगन का तो हिरोशिमा बनना तय ही है, वेहड़ा भी नागसाकी हो ही जाऊगा!
वे बोले : देख, घर से मां चली गई, कम्युनिज्म चला गया! बस हिटलरशाही रह गई। वह रुआबदार आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंज रही है आैर सिख वेशभूषा के कारण उनका ऋषितुल्य चेहरा मेरी आंखों के आगे जीवंत हो जाता है। मानो, वे कह रहे हों : कम्युनिज्म चला गया, मां चली गई! (कम्युनिज्म का अर्थ यहां सीपीआई-सीपीएम आदि के शासन से नहीं लगाया जाए। जैसे कि आरएसएस ब्रैंड विचारधारा या इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट या भोलेभाले लोगों को ठगने वाले ईसाइयों की गतिविधियों को हम धर्म नहीं कह सकते।)
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