सिक्खों की शहादत की कीमत कौन जाने!
औरंगजेब के शासन काल मे कश्मीर का नवाब जैनुअल आब्दीन था।कश्मीर में कश्मीरी पंडितों व मुसलमानों के बीच दंगे होने लग गए थे तो जैनुअल आब्दीन ने सख्ती का प्रयोग किया।बल प्रयोग से त्रस्त एक हजार कश्मीरी पंडित कृपादत के नेतृत्व में सिक्खों के नौवें गुरु तेग बहादुर से तिलक-जनेऊ के लिए मदद मांगने आये थे।गुरु तेग बहादुर जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो गए और हजारों सिक्खों की सेना के साथ कूच किया।साथ मे भाई मतिदास,भाई सतीदास व भाई दयाला भी थे।
हजारों सिक्खों के बलिदान के बाद गुरु तेग बहादुर,मतिदास, सतीदास व भाई दयाला को गिरफ्तार कर लिया और पंडितों के लिए लड़ने के जुर्म में मति दास को दिल्ली कोतवाली में काजी के आदेश पर लकड़ी के आरे से काटा गया,सतीदास को रुई में लपेटकर तेल डालकर आग लगा दी गई,भाई दयाला को गर्म पानी की कड़ाही में डालकर मार दिया और गुरु तेगबहादुर का सिर व धड़ अलग कर दी थी।बाद में भारी बारिश के बीच एक सिक्ख गुरु का सिर लेकर हरमिंदर साहिब रवाना हो गया व धड़ लखीशाह सरदार ने अपने घर ले जाकर घर सहित आग के हवाले कर दिया जहाँ आज चांदनी चौक में शीशगंज गुरुद्वारा बना हुआ है।
गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद पुत्र बाला प्रीतम/गोविंदराय 9साल की उम्र में सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु बने जिन्हें गुरु गोविंद सिंह के नाम से जाना जाता है।गुरु गोविंदसिंह भक्ति व शक्ति का अद्वितीय संगम थे।29संतों व 6गुरुओं की वाणी को कलमबंद करके "गुरुग्रंथ साहिब"की रचना की।उन्होंने ही आगे गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु मानने की नींव रखी।अन्याय व अत्याचारों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने "खालसा पंथ की स्थापना की। "वाह गुरु दा खालसा,वाह गुरु दी फतह"उनकी अमर वाणी है।पांच "क"अर्थात कच्छा, केश, कृपाण, कंघा, कड़ा धारण करना अनिवार्य किया।वो कहते थे कि "चिड़ियों सों मै बाज़ तड़ाऊँ। सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तबे गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ”।उनके चार बेटे थे जुंझारसिंह, अजीतसिंह,फतेहसिंह व जोरावरसिंह।
गुरु गोविंद सिंह ने कुल 14युद्ध लड़े थे उनमें से 13युद्ध मुगलों के सहयोगियों से व एक युद्ध मुगलों की सेना से लड़ा।1704 में सरहिंद अर्थात फतेहगढ़ के मुगल नवाब वजीर खान के खिलाफ 40सिखों ने चमकौर में लाखों सैनिकों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था जिसमे उनके दो पुत्र जुंझारसिंह व अजीतसिंह शहीद हो गए।दो छोटे पुत्रों फतेहसिंह व जोरावरसिंह को पंडित सुच्चाननंद ने धोखे से वजीरखान के हवाले करवा दिया।वजीरखान के दरबार मे जब सुनवाई हो रही थी तो बच्चों से बहस के दौरान सजा तय नहीं हो पाई तो मलेरकोटला के नवाब को शेरखान को बुलाया गया जिसके वारिसों की गुरु गोविंदसिंह के साथ युद्ध के दौरान मौत हो गई थी।शेरखान ने भरे दरबार मे कहा था कि मेरी लड़ाई इन बच्चों व इनकी दादी से नहीं है।युद्ध का बदला युद्ध होता है।निर्दोष बच्चों व महिलाओं की हत्या करना एक मुसलमान का धर्म नहीं है।इन्हें रिहा कर दो।
जब वजीर खान ने पूछा कि बच्चों बताओ कि रिहा होने के बाद क्या करोगे तो उन्होंने कहा कि हमारे दादा की तरह इंसाफ के लिए लड़ते रहेंगे।तब पंडित सुच्चाननंद ने कहा कि वजीर साहब सांप के बच्चे संपोले ही होंगे इनको खत्म कर दिया जाए और उसके बाद दोनों बच्चों को दीवार में चुनवा दिया गया।शेरखान की इंसाफ की आवाज को सिक्ख कौम एहसान मानती है व मलेरकोटला धार्मिक सद्भाव का पंजाब का शहर बन गया।नवाब की बस्तियां चाहे खंडहर में बदल गई हो लेकिन सिक्खों ने उनकी याद में एक गुरुद्वारा बनाकर उनकी इंसाफ की आवाज को जिंदा रखा है।दोनों पुत्रों की शहादत स्थल पर आज गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब बना हुआ है।
हर धर्म के मजबूत स्तम्भ खोने व विपरीत परिस्थितियों के कारण उनमें कमजोरी आ जाती है या विघटन की तरफ बढ़ जाता है।गुरु गोविंदसिंह एक मजबूत स्तम्भ थे और उन पर अफगानों द्वारा धोखे से वार किया गया और एक जख्म सीने पर लगने के कारण 7अक्टूबर 1708 में नांदेड़,महाराष्ट्र में मौत हो गई जहां गुरुद्वारा हुजूर साहिब बना हुआ है।सिक्ख धर्म मे दो वर्ग खुलकर सामने आने लगे।एक निरंकारी गुट बना जो यह मानने लगा कि शरीर रूप में आगे भी गुरु हो सकते है बाकी दूसरा गुट गुरु गोविंदसिंह के बताए रास्ते पर चलने की बात करता था जो "गुरु ग्रंथ साहिब"को अंतिम व सदाबहार गुरु मानने की बात करता था।दोनों गुटों में टकराव के कारण सिक्खिज्म कमजोर होता गया जिसका फायदा दूसरे धर्मों के लोग व अंग्रेजों ने खूब उठाया।अंग्रेजों ने गुरुद्वारों के महंतों को लालच देकर फंसा लिया।सिक्ख धर्म के अनुयायी नेतृत्वहीन हो गए और आपसी झगड़ों व अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाइयों में बलिदान द्वारा पूरे पंजाब सूबे की धरती लाल होने लग गई।इसी बीच महाराजा रणजीत सिंह का उदय होता है।
रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) जाट सिक्ख महाराजा महां सिंह के घर हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफगानों का राज चलता था जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का मुख्यालय गुजरांवाला में था।12 अप्रैल 1801 को गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी करवाकर महाराजा की उपाधि दी। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और पेशावर/पश्तून,लाहौर से लेकर अमृतसर तक पूरे इलाके पर आधिपत्य जमा लिया।1802 में अमृतसर गुरुद्वारे में संगमरमर के पत्थर लगवाए व स्वर्ण जड़ाव करवाया उसके बाद उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा।सभी मिसलों को एक करके आधुनिक खालसा सेना बनाई।उनके जीते जी उन्होंने अंग्रेजों को अपने राज्य में नहीं घुसने दिया।जजिया कर समाप्त कर दिया व सजा-ए-मौत पर रोक लगा दी।1839 में उनकी मौत हो गई और उनके पुत्र खड़कसिंह ने राज्य संभाला लेकिन 1848 के आंग्ल-सिक्ख युद्ध मे पराजय के बाद अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना नियंत्रण कर लिया।अगर अपने पूर्वज गुरुओं की भांति गुरुद्वारों के महंत चलते तो अंग्रेजों के पैर नहीं जमते लेकिन कुछ गुरुद्वारों के महंत अंग्रेजों के लालच में फंस गए जिसका सबसे बड़ा सबूत 21फरवरी 1920 को ननकाना साहिब में रक्तपात के रूप में सामने आया।सिक्ख जत्थेदारों ने महंत से ननकाना साहिब छोड़ने को कहा तो उन्होंने अपने गुंडों द्वारा पुरुषों,महिलाओं,बच्चों का कत्लेआम करवा दिया।अंग्रेज सेना के सिपाही फैजल खान का सिक्खों के समर्थन में विद्रोह करने के कारण अंग्रेजों को महंत के समर्थन से पीछे हटना पड़ा और गुरुद्वारा सिक्खों को सौंपना पड़ा था।फैजल खान को काले पानी की सजा दी गई थी।
जब देश की आजादी का आंदोलन चल रहा था तो सिक्ख कौम बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थी।एक तरफ नेहरू व जिन्ना के बीच नेतृत्व की लड़ाई चल रही थी तो दुसरी तरफ जिस तरह अम्बेडकर दलितों के लिए लड़ रहे थे उसी प्रकार मास्टर तारासिंह व सरदार बलदेव सिंह सिक्खों का नेतृत्व कर रहे थे।बलदेवसिंह धनी राजनीतिज्ञ थे तो तारासिंह एक मास्टर की नौकरी छोड़कर अपनी कौम की लड़ाई लड़ने वाले।मास्टर तारा सिंह ने सिक्ख गुरुद्वारों से हिन्दू मठाधीशों के डेरे उठवा दिए व शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के माध्यम से पूरी सिक्ख कौम एकजुट कर दिया।धर्म के नाम पर जब देश का बंटवारा हो रहा था तो मास्टर तारा सिंह व सरदार बलदेव सिंह ने नेहरू से अलग पंजाबी राज्य की मांग की जिसे बताया जाता है कि पंडित नेहरू ने स्वीकार कर लिया था।
1947 में जब पंडित नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनी तो मास्टर तारासिंह का जनाधार देखते हुए नजरअंदाज करके सरकार बलदेवसिंह को रक्षा मंत्री बना दिया गया।मास्टर तारासिंह ने संविधान परिषद में लड़कर पंजाबी भाषा को मान्यता दिलवाई व एक विश्वविद्यालय की मांग मनवा ली।ऐसा कहा जाता है कि मास्टर तारा सिंह ने व बलदेव सिंह ने आजादी के बाद जब नेहरू को अलग पंजाबी सूबा देने का वादा याद दिलाया तो पंडित नेहरू ने मुकरते हुए कहा "वो समय अलग था।" उसके बाद 1952 के महानिर्वाचन से पहले मास्टर तारा सिंह ने पंजाबी सूबे की मांग को लेकर दिल्ली में सम्मेलन बुलाया।उस समय कांग्रेस ने एक षड्यंत्र के तहत मास्टर तारासिंह ने कैद करवा दिया और सूबे की मांग के लिए संतसिंह को आमरण अनशन पर बैठा दिया।इस प्रकार पहली सरकार व पहले प्रधानमंत्री ने देश की आजादी में सबसे ज्यादा बलिदान देने वाली कौम के साथ खेल खेला।
सिक्खों द्वारा पंजाबी सूबे की मांग कभी ज्यादा तो कभी कम,लेकिन सदैव उठती रही।एक तरफ देश मे भाषाई आधार पर आंध्रप्रदेश सहित राज्य बन रहे थे जबकि दुसरी और भारत सरकार पंजाबी सूबे की मांग वाले नारों को प्रतिबंधित करके जो बोल रहे थे उनको जेलों में ठूंस रही थी।इससे आक्रोश बढ़ता गया।1966 में पंजाब का विभाजन हुआ लेकिन उसका श्रेय कांग्रेस ने मास्टर तारासिंह के बजाय खुद के तैयार किये हुए अनशनकारी संत फतेहसिंह को दिया।इस विभाजन में भी आग की लपटें तैयार की गई थी।चंडीगढ़ व अबोहर को कांग्रेस ने आगे के लिये तैयार रख लिए।बाद में विरोध बढ़ा व खून खराबा होने लगा तो 1973में आनंदपुर साहिब रेसॉल्युशन पास किया गया जिसमें सरकार ने 7वादे पूरे करने की लिखित में बात की लेकिन वो आज तक भी लागू नहीं की गई।
सिक्खों की शहादत की पृष्ठभूमि मैंने इसलिए बताई कि आगे संत भिंडरवाला को समझने में आपको सुविधा हो।अगली पोस्ट में भिंडरवाला का उदय व ऑपरेशन ब्लू स्टार.....जारी है...
सिक्खों की शहादत की पृष्ठभूमि मैंने इसलिए बताई कि आगे संत भिंडरवाला को समझने में आपको सुविधा हो।अगली पोस्ट में भिंडरवाला का उदय व ऑपरेशन ब्लू स्टार.....जारी है...
प्रेमाराम सियाग
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