शनिवार, 21 जुलाई 2018

माना कि यह डर जाने का समय......

माना कि यह डर जाने का समय है प्रियवर, लेकिन सचमुच इतना भी डर जाने का समय नहीं है!

त्रिभुवन
माना कि यह डर जाने का समय है प्रियवर, लेकिन इतना भी डर जाने का समय नहीं है! अभी इतना भी अंधियारा नहीं हुआ है कि हम अपने रक्त का एक दीप भी प्रज्वलित नहीं कर सकें। सचमुच इतना भी डर जाने का समय नहीं है ये। वे अगर आपके रक्त का आचमन करने को आतुर हैं तो आप कम से कम अपने रक्त से दीपक जलाकर कुछ अंधेरा तो दूर कर ही सकते हैं। आप अगर अपने रक्त के दीप जलाने को तैयार हो जाएंगे तो चांद उगेंगे और सारा तमस छंट जाएगा।

यह ख़बर बिलकुल सही है कि इतिहास, धर्मशास्त्र, राजनीति शास्त्र, भौतिकविज्ञान, रसायन शास्त्र, त्रिकोणमिति, कैलकुलस, बुद्धिशास्त्र और शिक्षा विज्ञान का मूल्यांकन अब आतंकवादी कर रहे हैं। आप यह मत कहिए कि यह श्रेणियों या मर्यादाओं का ज्ञान भर नहीं है। आप यह भी मत कहिए कि यह केटेगरी मिस्टेक है।

यह ख़बर भी बिलकुल सही है कि मंदिरों में घंटियों की जगह अब झिंगुरों की आवाज़ें आने लगी हैं। गुरुद्वारों में ग्रंथसाहब को एक बहुत ही शालीन रेशमी चादर से ढंक दिया गया है। मस्ज़िदों की अज़ान बम धमाकों में लुप्त हो रही हैं। गिरजाघरों के इर्दगिर्द नन्ही बालिकाओं की चीखें दब गई हैं। जैसे देवत्व की प्रतिमाएं लुप्त हो गई हैं और धरती पर हर जगह विभिन्न रंगों के झींगुरों की आवाज़ें गूंज रही हैं।

मैं एक बार फिर कहूंगा कि दमकता हुआ चंद्रमा फिर छुप गया है नभ में कहीं और बूढ़े सितारों को सड़क पर लाकर फेंका जा रहा है। प्रश्नाकुल मन के साथ सांस्कृतिक मर्यादाओं और कर्तव्यनिष्ठाओं के सुर्ख फूल अत्याचारों के बोझ से कुम्हला गए हैं। वाक़ई यह अंधियारा समय है प्रिय, क्योंकि विशुद्ध और निष्पाप विद्वत्ता वाले इतिहासकारों के मुंह को आंसुओं से धोने का मौसम है। यह झूठों, मिथकों और अर्धसत्यों को राष्ट्रीय अस्मिता बना देने और बहेलियों को राष्ट्रीय गौरव बना देने का कालखंड है। यह कला, दर्शन, संगीत, साहित्य, चित्रकला और इतिहास की गतिविधियों का समय नहीं, यह बौद्धिक रूप दरिद्र हो जाने, बेहूदा विचारों को आत्मसात करके नृत्यरत होने और अपने भीतर के जंगलीपन पर गर्व करने का युग है, प्रियवर!

हमने इस धरती पर फ़ैसला कर लिया है कि उत्पीड़न हमारा धर्म है और इस धर्म के सब मंत्र डार्क मेटल के संगीत से लयबद्ध होंगे। यह आँसुओं में भीगी कारुणिक पुकारों की ऋतु है। यह लाठियों, बंदूकों और स्टेनगनों का पर्व है। मुसीबतों की मोहिनियां बुलाने के लिए मूर्खों, मतांधों, अंधभक्तों, दुराचारियों, हुड़दंगियों और धर्म के नाम पर हत्या करने वालों के स्वागत में करबद्ध खड़े हम अपने विनाश का महामंत्र पढ़ रहे हैं। अब हमें वेदों, उपनिषदों, षडदर्शन आदि के विलक्षण ज्ञान, शंकराचार्य या ब्रह्मगुप्त की अदभुत बौद्धिकता, भास, भारवि, शूद्रक या कालिदास के काव्यवैभव पर गर्व नहीं है। अब हमें भगवद् गीता या रामायण के मूल्य नहीं, राम का धनुष, कृष्ण का सुदर्शन चक्र और हनुमान की गदा प्रिय है, प्रियवर। हम राम के सत्ता से मुंह फेर लेने वाले मर्यादित जीवन को भूल गए हैं। हमें कृष्ण के प्रेम से कोई लेना देना नहीं है। हमारे हृदयों में सेवाभाविता का कोई दीप नहीं जल रहा है।

यह टैंकों, तोपों, बंदूकों और बैलेस्टिक मिसाइलों का त्योहार है। अब युद्ध विनाश नहीं, विकास के नाम पर मनाया जा रहा एक उत्सव है। यह कायर लोगों का समय है। यह हैरान चेहरों और परेशान देहों का घुप अंधेरा है। यह ऐसी अंधेरी गली है, जिसमें अस्सी साल के एक संन्यासी को जूतों के तल्लों से लतियाया जा रहा है और विवेकशीलता की कोंपले खिलाने वाले बौद्धिकों की हत्याएं की जा रही हैं, जिन पर शासन, प्रशासन और धर्म का लबादा ओढ़े जंबूक इस धरती के क्षितिज पर चढ़ कर हुआँ-हुआँ कर रहे हैं। यह ऐसा कालखंड है कि ऋषि-मुनियों की संतानें उत्पाती हमलावर महमूद गजनी का अाचरण आत्मसात करने को व्याकुल हैं। यह जाने बिना कि उग्र रूढ़िवाद और प्रचंड मतांधता पैदा करके कुछ चालाक लोग अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस धरती के लोगों के भोलेपन का इस्तेमाल कर रहे हैं और उनकी संतानों को ही नहीं, इस समूचे भूखंड को मतांधता के घटाटोप में लाकर छोड़ने जा रहे हैं।

जिसे तुम अपने सपनों का राजकुमार समझ रहे हो, वह दरअसल एक ख़तरनाक़ घुसपैठिया है, जो इस बार तुम्हारी चेतना में सोते हुए प्रवेश कर गया है और उस प्रहरी की मुद्रा में आ गया है, जो असल में तुम्हारे स्वप्नलोक की हत्या के लिए भेजा गया है। इसलिए तुम उन सभी स्वामिभक्त कुत्तों पर भी ग़ाैर करो, जो हादसों और वारदातों के समय भौंकना भूल जाते हैं और हत्यारे का मुंह चाटने लगते हैं। यह बहुलतावाद, सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षता के वैविध्य को नष्ट करने और दिक् और काल में हिंसा, अन्याय और तानाशाहियां चिन देने का समय है। अब यह योग, सांख्य, न्याय, वेदांत, वैशेषिक और मीमांसा का समय नहीं है। अब नए दर्शन का केंद्रीय तत्व घृणा है और अपनी भीतरी पवित्रता से विद्रोह करके ऐसे आत्मविनाशी बीज मंत्रों का समय है, जो हमारी युगों पुरानी वैज्ञानिक प्रगति को औंधा करके रख देगा। विश्वास नहीं होता कि हम उस भूखंड पर खड़े हैं, जहां आर्यभट्‌ट जैसे वैज्ञानिक, दयानंद जैसे पांखड विरोधी और कबीर जैसे विवेकवादी और निर्भीक संत हुए, जो सब दकियानूसी मान्यताओं से अलग राय रखने और झूठ को झूठ आैर असत्य को असत्य कहने का साहस रखते थे और ऐसा करते हुए अपने प्राणाें तक से प्रेम नहीं करते थे। यह अमर्त्य सेन जैसे विवेकवादी अर्थशास्त्रियों और मदर टेरेसा जैसी मानवताकामी मनीषा वाले हृदयों का देश भी है।

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