उठने से पहले क्यों लड़खड़ा जाती है राजस्थान की बहुजन राजनीति?
पिछले दिनों मैंने तीसरे मोर्चे को लेकर 5-7लेख लिखे थे जिसमें मुझे भरपूर गालियां मिली थी।आलोचना करने का व अपना मत व्यक्त करने का अधिकार सबको है लेकिन संवैधानिक मर्यादा भूलकर व्यक्तिगत आरोप/लांछन लगाना व अमर्यादित भाषा का उपयोग करने का अधिकार किसी को भी नहीं था फिर भी मैंने इन हरकतों को नजर अंदाज करने की कोशिश की थी!मैं एक कलमकार हूँ और मेरा फर्ज बनता है कि मैं सत्य का आईना बना रहूँ।
असल मे दिक्कत क्या है कि जहां-जहां देशभर में अंग्रेजी काल मे अंग्रेजों का सीधा नियंत्रण था वहां जागरूकता का दौर पहले शुरू हो गया था।आज जहां भी बीजेपी-कांग्रेस के अलावे कोई क्षेत्रीय क्षत्रप इनको चुनौती देता नजर आता है उस क्षेत्र का इतिहास हमे दिमाग मे रखना होगा।दक्षिण-पूर्व भारत में अंग्रेजों का सीधा नियंत्रण था इसलिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था से परे राजनीतिक जागरूकता का दौर चला था व राज्यों में सत्ता पर कब्जा बहुजनों ने किया था।मध्य,उत्तर व पश्चिम भारत के राज्यों में आजादी से पूर्व अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में जो राज्य थे वहां पर बहुजन राजनीति उठ खड़ी हो गई लेकिन जो इलाके आजादी के आसपास के दौर में भी स्थानीय राजा-रजवाड़ों की दलाली के केंद्र रहे है वहां राजनीति कांग्रेस-बीजेपी-आरएसएस के पास ही सिमटी हुई है।यूपी, बिहार,हरियाणा,पंजाब,राजस्थान,गुजरात आदि की राजनीति का विश्लेषण करना चाहिए।यूपी में माननीय कांशीराम,चौधरी चरणसिंह,मुलायम सिंह यादव व बहन मायावती सत्ता पर कब्जा कर लेते है।बिहार में शरद यादव ,लालू यादव जैसे लोग बहुजन राजनीति के पर्याय बनकर उभरते है तो हरियाणा में चौधरी देवीलाल बहुजन राजनीति को जगाकर सत्ता पर कब्जा कर लेते है।पंजाब में अकाली दल कोई यूँ ही खड़ा नहीं होता है!यह अलग बात है कि बीजेपी-आरएसएस के साथ मिलकर ये राह भटक गए जैसे बसपा व सपा भटके थे लेकिन इनको सत्ता मिलने की बुनियाद यह थी कि आजादी के पहले से स्थानीय जनता जागरूक थी और आरएसएस-कांग्रेस को चुनौती देने के लिए इन इलाकों में बहादुर व जुझारू नेता सामने आए।
राजस्थान में तीसरा विकल्प क्यों नहीं खड़ा हो रहा है इसको समझने के लिए हमे आजादी के आसपास के इतिहास को ध्यान से समझना होगा।राजस्थान के हाड़ौती के एकाध उदाहरण को छोड़ दिया जाए तो अंग्रेजों के खिलाफ कोई बड़ी बगावत नहीं हुई थी।सत्ता के खिलाफ बगावत वहां होती है जहां सत्ता व जनता के बीच सीधा संपर्क हो।राजस्थान में अंग्रेज सीधे तौर पर कभी भी राज नहीं कर पाए बल्कि स्थानीय राजाओं व रजवाड़ों के लोगों को अपने दलालों के तौर पर नियुक्त किया था।ये राजा-रजवाड़े जिस प्रकार गुप्तकाल में एजेंट बनकर ब्राह्मणों ने धन लूटा व बहुजनों पर अत्याचार किया था उसी प्रकार के अंग्रेजी काल के ये लुटेरे थे!इन्होंने जनता को मानसिक तौर पर कभी भी आजाद नहीं होने दिया था।सदियों पुरानी मानसिक गुलामी का क्रम आजादी मिलने के बाद भी नहीं टूटा।
आजादी के आंदोलन के समय प्रजामंडल नाम व्यास-जोशी-मेहता आदि लोग शहरी तबके में मनुवादी मानसिकता वाली आजादी के लिए लड़ रहे थे तो रजवाड़ों से पिंड छुड़वाने के लिए मिर्धा-मदेरणा आदि लोग जमीन पर संघर्ष कर रहे थे!यह वो दौर था जब रजवाड़े वाले खुद की दलाली की दुकानें आबाद रखने के लिए प्रयासरत थे,व्यास-जोशी-मेहता मंडी-फंडी की राजनीति करके सत्ता पर कब्जा करने की दौड़ में लगे और उधर सदियों से त्रस्त बहुजन लोगों का नेतृत्व करने के लिए किसान कौमों से मिर्धा-मदेरणा-आर्य आदि मैदान में थे।मंडी-फंडी के विरोध में कांग्रेस अपनी जड़े जमाने के लिए किसान सभा व उनके नेताओं के पीछे घूम रही थी।यह आपको भी पता होगा कि किसान सभा व कांग्रेस का बेमेल समीकरण कैसे सेट हुआ?
मैँ इशारों-इशारों में ये बातें इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि राजस्थान में तीसरे मोर्चे का शोरगुल धराशायी कैसे हो गया यह समय रहते समझ मे आ जाये।राजस्थान के लगभग 70%इलाकों में दलित घोड़ी पर नहीं बैठ सकता,राजस्थान के हर दूसरे गांव में ठाकुरजी का मंदिर है वहां दलित के प्रवेश पर पाबंधी है,धार्मिक कर्मकांडों में ब्राह्मणों के अलावे यज्ञ आहुति देने का अधिकार किसी को नहीं है,पूरे पश्चिमी राजस्थान के आधे से ज्यादा इलाकों में अंग्रेजों के दलालों के वंशजों के आगमन पर दलित तो छोड़ो जाट भी खाट से उतर जाते है और उनको ऊपर बैठाकर सामने जमीन पर याचक की तरह बैठते है!इस तरह की मानसिक गुलामी जहां सीधा अंग्रेजों का नियंत्रण था वहां आजादी के 100साल पहले खत्म हो गई थी व राजस्थान में आज भी जारी है।
आजादी के समय किसान व दलित नेताओं ने जो संघर्ष किया था उस पर आज पानी फिरता जा रहा है!गुलाम मानसिकता की जनता में बगावत का बीज बोना बड़ा मुश्किल काम है।आज का हालात आप खुद देख लीजिए।जितने भी बड़े किसान नेता है या दलित नेता है वो कांग्रेस-बीजेपी के टिकट की लाइन में लगे है या कोई पद हासिल करने में लगे है।अंग्रेजी काल मे रजवाड़े वाले हमारे दलाल थे व स्वतंत्रता के बाद हमने अपने समाजों में दलाल पैदा कर लिए इससे ज्यादा कोई बदलाव नहीं आया है।
आजकल छोटे-मोटे किसान नेता जो तीसरे मोर्चे की हुंकार भर रहे है उनकी हुंकार खुद के विधानसभा क्षेत्र के आसपास सिमट चुकी है!किरोड़ीलाल की असफलता शायद उनका आदर्श बन चुकी है!परसों किसी ने बताया कि किरोड़ीलाल के साथ कुछ युवाओं ने धक्का-मुक्की की थी तो मुझे महशुस हुआ कि जब किरोड़ीलाल मीणा मैदान में खड़े होकर हुंकार भर रहे थे उनका सहयोग क्यों नहीं किया गया?राजस्थान में एक भी ऐसा नेता नहीं मिला जो किरोड़ीलाल के साथ खड़ा हो जाये!जिन्होंने होने की हुंकार भरी उनके अनवरत प्रयासों को देखकर अपना अंतिम जीवन सुखमय बनाने की अंतिम यात्रा कर डाली!
यह सिर्फ इतेफाक नहीं है कि अब तीसरे मोर्चे के रूप में एकमात्र खींवसर के निर्दलीय विधायक मैदान में अभी संघर्ष कर रहे है!इन्होंने आजतक किसी दूसरे नेता को साथ मे जोड़ने का प्रयास नहीं किया!अकेले ही जयपुर कूच करेंगे और सदियों से चली आ रही अंधभक्त गुलाम मानसिक लोगों की भीड़ इनको सीएम की कुर्सी तक पहुंचा देगी!देशभर के राजनीतिक लोग व राजनीति के जानकार इस तीसरे मोर्चे को कहीं भी जगह नहीं दे रहे है!
बात वहीं आकर रुकती है कि हमे जागरूक होने के लिए 50साल और चाहिए और बहादुर/संघर्षशील व राजनैतिक सूझबूझ वाला नेता प्राप्त होने के लिए 100साल इंतजार करना पड़ेगा।
प्रेमाराम सियाग
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